संस्कृत शब्द से “डॉलर” की व्युत्पत्ति, ऐसी जानकारी जो हर भारतीय को जानना जरूरी है

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सिक्कों की पहचान का लुप्त ग्रंथ : रूपसूत्र

चेक रिपब्लिक में एक स्थल है “Jáchymov” जिसका जर्मन नाम है “Joachimsthal” । यह स्थल चेक रिपब्लिक के जर्मन भाषी बोहेमिया में जर्मनी के बोहेमिया प्रान्त की सीमा पर है और चेक रिपब्लिक का वह क्षेत्र जर्मन भाषी रहा है,यद्यपि हिटलर की पराजय होते ही वहाँ से जर्मनों को भगाकर चेक लोगों को स्तालिन ने बसा दिया ताकि वहाँ की यूरेनियम खदानों का दोहन कर सके ।Joachimsthal का आधुनिक म्लेच्छों द्वारा अर्थ बताया जाता है ईसाई सन्त “Joachim’s valley” जो गलत है । सब जानते हैं कि चेक और जर्मन आदि भी भारोपीय परिवार की भाषायें थीं । अतः “Joachim−sthal” का अर्थ हुआ “Joachim का स्थल” । १५१६ ई⋅ में बोहेमिया के राजतन्त्र में वहाँ चाँदी की खदाने थीं । वहाँ की चाँदी से सिक्के ढाले जाते थे जिनपर सन्त Joachim का चित्र रहता था,जिस कारण प्रत्यय “−er” लगाकर उन सिक्कों को “Joachimsthaler” कहा जाता था जिसका अर्थ हुआ “योआक़िम के स्थल वाला (सिक्का)” । संक्षेप में उन सिक्कों को “sthaler” कहते थे जिनका प्रचलन चाँदी की शुद्धि के कारण दूर−दूर तक हुआ । जर्मनी के पश्चिमी और उत्तरी निम्न प्रदेशों में “sthaler” के अपभ्रंश “thaler” को “daler” कहते थे जिनका विभिन्न भाषाओं में कुछ अन्तर रहता था । स्पेनी में dólar कहते थे जहाँ से अमरीकी महाद्वीपों में प्रचार हुआ । अमरीका में अंग्रेजों ने स्पेनी dólar को dollar बना दिया जिसे अमरीका पूरे विश्व पर थोप रहा है ।स्पेन की मुद्रा “पेसो” हिन्दी “पैसा” से बनी । स्पेन का “पेसो” का अर्थ था एक निश्चित भार,जितने भार का वह सिक्का होता था । स्पेनी “पेसो” का प्रचलन तब आरम्भ हुआ जब पेरू,मेक्सिको आदि में स्पेनी लुटेरों को चाँदी की विशाल खदानें मिलीं । स्पेन को इतना चाँदी मिलने लगा कि अधिकांश विश्व व्यापार “पेसो” में ही होने लगा । उस युग में विश्व व्यापार का अधिकांश भारतीय सामग्रियों पर आधारित था । अतः पुर्तगाल ने भारत से “पैसा” सीखा और उसे “पेसो” कहा । १९११ ई⋅ तक पुर्तगाल और स्पेन की मुद्रा में अन्तर नहीं था ।भारत का “पैसा” प्राचीन संस्कृत सिक्का “पण” का अंश था जिसे “पणांश” कहते थे । “पणांश” का अपभ्रंश हुआ “पैसा” । पणांश > पैन्स > पैसा,ब्रिटेन का पैसा “पेन्स” भी पण से ही बना । रोमनों में एक भार का नाम था पोण्डो जिससे ब्रिटेन में पाउण्ड मुद्रा बनी । पोण्डो भी पण्यदः का अपभ्रंश था,मूलतः पण से निःसृत ।“पण” का सर्वाधिक प्रसिद्ध संस्करण था बुद्ध से मौर्य काल तक की मुद्रा “कार्षापण” । “पण” पहले चाँदी के होते थे । अशोक के भयानक युद्ध के कारण आर्थिक क्षति हुई तो मौर्यों ने चाँदी के सिक्कों में ताँबा मिलाना आरम्भ कर दिया । पूर्णतया ताँबे के सिक्के भी प्रचलन में थे । कालान्तर में चाँदी के सिक्के को चाँदी के पर्याय “रूपा” के कारण “रूपया” कहा जाने लगा और उसके अंश पणांश को “पैसा” । आज पेसो दर्जनों देशों की मुद्रा है ।“पैसा” से भी छोटी मुद्रा थी “कौड़ी”,भारत से चीन आदि तक सर्वत्र ।पूर्वी भारत में चाँदी के सिक्के पर टङ्कन के कारण “टाका” प्रचलित हुआ ।प्राचीन भारतीय “पण” पर मेरा एक दीर्घ पोस्ट है जिसमें उन मुद्राओं पर टङ्कित चित्रों की विवेचना है ।भारतीय परम्परा है मुद्रा पर देवी−देवता का चित्र अथवा नाम अथवा प्रतीक डालना,न कि गाँधीजी अथवा जार्ज वाशिंगटन का चित्र देना । भारत का अन्धयुग जब आरम्भ हुआ तब राजाओं ने अपने चित्र डालने आरम्भ किये । किन्तु मुहम्मद गोरी ने भी पंजाब पर आधिपत्य करने के पश्चात वहाँ की परम्परा के अनुसार मुद्रा पर लक्ष्मी जी और ॐ का चित्र ही दिया,बाद में मुसलमानों की शक्ति बढ़ी तो हिन्दू प्रतीकों को हटाया ।बोहेमिया में चाँदी के “स्थल” से डालर बना और भारत के पैसा से पेसो । म्लेच्छ प्रोफेसर्पों को भारत से सीखकर भारत के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में लज्जा आती है । आज संसार में जितना स्वर्ण है उसका अधिकांश भारत की लूट से ही गया है । म्लेच्छ नहीं स्वीकारेंगे । आज भी सबसे अधिक लूट भारत की ही हो रही है — नकली विनिमय दर द्वारा ।रोमन साम्राज्य के लेखकों ने अपनी पुस्तकों में शिकायत की कि भारत से आयात करने में रोमनों को हर वर्ष ६० करोड़ स्वर्ण मुद्रायें खर्च करनी पड़ती थी । उतना स्वर्ण एकत्र करने के लिए रोमनों को पूरे वर्ष यूरोप,अफ्रीका और पश्चिम एशिया में लूट−खसोट हेतु अनवरत युद्ध करने पड़ते थे जिस कारण सारे लोग अत्याचारी रोमनों के शत्रु थे । ६० करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का वर्तमान मूल्य लगभग ३ लाख करोड़ रूपये अथवा क्रयशक्ति के आधार पर वर्तमान १७० अरब डालर के तुल्य है और कृत्रिम विनिमय दर पर ४० अरब डालर । अभी भारत का सम्पूर्ण निर्यात दो सहस्र वर्ष पूर्व के रोम को भारतीय निर्यात का नौ गुना है । केवल रोम को निर्यात से प्रति व्यक्ति आय आज के भारत के सम्पूर्ण निर्यात की तुलना में सवा दो गुणी अधिक थी । विदेश व्यापार से कुल प्रति व्यक्ति आय आज से आठ−दस गुणी अधिक रही होगी । कितना समृद्ध था यह राष्ट्र! वह समृद्धि वैश्यों और शूद्रों के कारण थी जिनका भिखमँगे ब्राह्मण भीख माँगकर शोषण करते थे (आज के ईसाई लेखकों और उनके चाकरों के अनुसार) । दो सहस्र वर्ष पूर्व भारत का निर्यात जितना था उतने स्तर तक पुनः भारत बींसवी शती में ही पँहुचा है,वरना पिछली शतियों की लूट ने सोने की चिड़िया के पर कतर डाले थे ।सही इतिहास पढ़ाया नहीं जाता । जो लोग सही इतिहास नहीं सीखते,उनको इतिहास ही सिखा देता है — रौंदकर । अब वह काल आ रहा है ।सबको रौंदने वाले गोपनीय संहारात्मक कालचक्र पर लेखमाला पोस्ट करने की सोच रहा हूँ।

सिक्कों की पहचान का लुप्त ग्रंथ : रूपसूत्र

प्राचीन काल में जबकि अलग- अलग इलाकों में अलग-अलग सिक्कों का व्यवहार था, तब सिक्कों के मानक रूप, उनके ऊपर अंकित चिह्नों के अभिप्राय, उनके प्रचलन इलाकों और उन इलाकों की भौगोलिक स्थिति की जानकारी देने वाला एक ग्रंथ था : रूपसूत्र। आज यह ग्रंथ हम खो चुके हैं और इसकी जानकारी तक हमें नहीं होती यदि बुद्धघोष इसका उल्लेख नहीं करता।’रूप’ शब्द का प्रयोग मूर्ति के अर्थ में मध्यकाल में मिलता है क्योंकि सूत्रधार मंडन ने 1450 ईस्वी में ‘रूपमंडन’ और सूत्रधार नाथा ने 1480 में “रूपाधिकार” नाम से मूर्तिकला पर ग्रंथ रचे। (वास्तुमंजरी : नाथाकृत, संपादक श्रीकृष्ण जुगनू के अनुसार) हालांकि अष्टाध्यायी में पाणिनि ने रूप शब्द का प्रयोग बताया है ( 5, 2, 120) तथा उससे बने ‘रूप्य’ शब्द का अभिप्राय ‘सुंदर’ एवं ‘आहत’ यानी मुहर युक्त बताया है। यही शब्द बाद में सिक्के के लिए चलन में आया क्योंकि अर्थशास्त्र ने रूप का अर्थ सिक्का ही लिया है और न केवल चांदी बल्कि तांबे के सिक्के के लिए भी यही प्रयोग किया है – ‘रूप्यारूप’ एवं ‘ताम्ररूप’।

पतंजलि ने ‘रूपतके’ शब्द का प्रयोग पाणिनि के एक सूत्र (1, 4, 52) के वार्त्तिक के प्रसंग में किया है जो कार्षापणों की जांच करता था। चाणक्य ने इस पदाधिकारी के लिए ‘रूपदर्शक’ शब्द का प्रयोग किया है।प्राचीन काल में सिक्कों के ढालने व चलाने के लिए प्राविधिक मुद्राशास्त्र था जिसकी ओर संकेत लेखक बुद्धघोष ने अपनी “समंतपासादिका” में किया है। तब अजातशत्रु या बिंबिसार के 20 माषक का कार्षापणों का चलन था और उसे नीलकाहापण नाम बुद्धघोष ने दिया था। उस समय सिक्कों के निरीक्षण का काम बड़ी जिम्मेदारी से किया जाता था। एेसे दायित्वबोध की चर्चा के साथ ही कौटिल्य ने ‘लक्षणाध्यक्ष’ नामक टकसाल के अधिकारी का उल्लेख किया है। उसके साथ जांच का काम ‘रूपदर्शक’ करता था। वह जांचकर बार बार सिक्कों पर मुहर लगाता जाता था। एेसी लगभग एक दर्जन मुहरों वाले सिक्के अब तक मिल चुके हैं और अधिक संख्या वाले घिस-पिट चुके हैं।इस सिक्कों पर लगाये गए प्रतीकों और चिह्नों का पूरा अर्थ होता था जिसे आज अनुमान से ही जाना गया है जबकि बुद्धघोष का कहना है कि “रूपसूत्र” में इसका विवरण मिल जाता था। इस ग्रंथ का अभ्यासी “हेरञ्जक” कहलाता था और वह चित्र-विचित्र सिक्के देखकर निम्न बातें कह सकता था :1. कोई सिक्का किस गांव, निगम या राजधानी है ?2. सिक्का किस टकसाल में ढाला गया है ?3. उसका मूल्य व धातु क्या-क्या है ?यही नहीं, हेरञ्जक यह भी बता सकता था कि सिक्कों वाला गांव, निगम आदि किस दिशा, पहाड़ी के शिखर या नदी के तट पर मौजूद है। ( Bhudhhistic studies p. 432)है न रोचक किताब की बात। यह पुस्तक कीमती इसलिये थी कि उसके अभ्यास से सिक्कों की पहचान करते-करते आंखें खोने का भय नहीं रहता था। इसीलिये सर्राफ लोग भी उसका अभ्यास करते थे। क्या यह ग्रंथ तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्व विद्यालयों में पढ़ाया जाता था ? मुझे तो मालूम नहीं मगर यह ग्रंथ एक आवश्यकता थी, यह एक प्रमाण की उपज था और इसी आवश्यता ने बाद में मुद्राशास्त्र को जन्म दिया।

“रूपा” शायद लड़कियों के नाम के तौर पर आपने सुना होगा | अक्सर बंगाली लड़कियों का नाम होता है | दरअसल रूपा का मतलब होता है चांदी | बांग्ला में अभी भी चांदी को “रूपा” ही बुलाया जाता है | संस्कृत में भी “रूप्यकं” जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता है | भारतीय लोगों के चांदी के शौक का अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि जो पान, या फिर मिठाइयों पर पतला सा चांदी का वर्क लगाया जाता है, सिर्फ़ उसके लिए हर साल भारत में करीब 13 टन चांदी इस्तेमाल होती है | एक टन मतलब, 10 क्विंटल, और एक क्विंटल मतलब सौ किलो तो 13000 किलो चांदी तो हम लोग खा जाते हैं हर साल |सीधा अरब से सम्बन्ध रखने वाले मुस्लिम खुद को अश्रफ़ कहते हैं, उनके नाम पर राजसी मोहर वाले सोने के सिक्कों को अशर्फी कहा जाने लगा था | बाद में जब शेर शाह सूरी ने भारत में चांदी के सिक्के जारी किये तो चांदी को रूपा बुलाये जाने के कारण इसे रुपया बुलाया जाने लगा | भारत में चलने वाली मुद्रा का भी इतिहास कई लोगों को असहज कर सकता है |✍🏻आनन्द कुमाररुपया का मूल-कल एक पोस्ट देखा जिसमें रुपये के सिक्के का फोटो था तथालिखा था कि शेरशाह के समय इसका चलन आरम्भ हुआ। ऐसा वर्णन होता है जैसे शेरशाह के ५ वर्ष राजा होने के समय ही भारत में सभ्यता का आरम्भ हुआ था। वह किसी एक स्थान पर टिक नहीं पाया था। जब बंगाल की तरफ बढ़ा तो बक्सर के पश्चिम का भाग हाथ से निकल गया था। जब उन पर कब्जा करने निकला तो बंगाल निकल गया। कालिंजर तक पहुंचा जहां के किले में उसकी मृत्यु हुई। तो उसने ग्रैण्ड ट्रंक रोड कब और कैसे बनवाया। ५ वर्ष में अपने रहने का घर नहीं बनवा सका, मरने के बाद सासाराम में मकबरा कैसे बन गया? उसकी मृत्यु के बाद उसका लड़का मुगलों के मुकाबले के लिये पहले हेमचन्द्र विक्रमादित्य का सेनापति था उसके बाद राणा प्रताप के सेनापति के रूप में मारा गया। सासाराम का मूल है सहस्रराम-या तो यहां परशुराम का जन्म हुआ था या यहां सहस्रार्जुन को मारा था। अतः यह परशुराम मन्दिर था।स्पष्टतः शेरशाह के पहले भी भारत में मुद्रा का चलन था जिनके नाम बदलते रहे हैं।भारत में मुस्लिम शासन में भी कभी दीनार का प्रचलन नहीं हुआ। यह मूलतः यमन में व्यवहार होता था-बाद में अलजीरिया, ट्यूनिसिया, लिबिया, युगोस्लाविया, कुवैत आदि में फैल गया। पर पश्चिमोत्तर भारत (पाकिस्तान) में मिली पुरानी गणित पुस्तक में दीनार मुद्रा का हिसाब दिया है-१ सुवर्ण = १ १/३ दीनार = २ २/३ द्रंक्षण = १६ धानक = ८० रक्तिका (रत्ती?)१ दीनार = २ द्रंक्षण, १ द्रंक्षण = ६ धानक, १ धानक = ५ रक्तिका।बिहार के रोहतास जिले में भी एक दिनारा है जो पुराना बाजार था। शिवाजी के समय में हूण भी एक सिक्का था था। ओड़िशा में प्रायः ८०० वर्ष पहले जगन्नाथ मन्दिर बनाने में १२.५० करोड़ माड़ (स्वर्ण मुद्रा) खर्च हुई थी जबकि राज्य की वार्षिक आय ५० करोड़ थी। ३ वर्ष में इतना भक्तों के चढ़ावे में मिला था। १ मोहर = २ माड़ा।सिक्के पर संख्या या चित्र टंकित होने के कारण उसे टंका भी कहते थे। पण (बाजार) में व्यवहार होने के कारण मुद्रा का नाम कार्षापण था। इनके नाम समय तथा क्षेत्र के अनुसार बदलते रहे हैं। पर ३ स्तर के स्थायी नाम वेद-पुराणों में मिलते हैं-सामान्य मुद्रा-धेनु (चान्दी का)-क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः\ यदा वृत्राणि जङ्घनदथैनं मे पुनर्ददत्॥ (ऋक् ४/२४/१०)= कौन मेरी इन्द्र प्रतिमा को १० धेनु में खरीदेगा और वृत्र वध से इन्द्र के लौटने पर वापस कर देगा? गौ का मूल्य धेनु से अधिक था। सूर्य से आती ऊर्जा को गौ कहा गया है और दिन में उसका जो भाग पृथ्वी को मिलता है उसका अंश सायंकाल निकलना शुरु होता है जिसे धेनु कहा गया है-अग्निं तं मन्ये यो वसुः (पृथ्वी में वास) अस्तं यं यन्ति धेनवः। (ऋक् ५/६/१) गो का अर्थ किरण अहि और उस अर्थ में स्वर्ण मुद्रा को भी कहते थे। पुराणों में कहानी है कि राजा लोग १० लाख गायें दान देते थे। इतनी गायों को रास्ते पर ले जाना या उनका घर में पालन करना किसी परिवार के लिये सम्भव नहीं है। यह मुद्रा की ही इकाई हो सकती है।मनुस्मृति में निष्क को बड़ी मुद्रा कहा है पर बाद में यह छोटी मुद्रा हो गयी। निष्क से पंजाबी में निक्का (छोटा) या निकेल धातु हुआ है। मनुस्मृति अध्याय ८ के मान-जालान्तर्गते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः। प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते॥१३२॥ त्रसरेणवोऽष्टौ विज्ञेया लिक्षैका परिमाणतः।ता राजसषपस्तिस्रस्ते त्रयो गौरसर्षपः॥१३३॥ सर्षपाः षट् यवो मध्यस्त्रियवं त्वेककृष्णलम्। पञ्चकृष्णलको माषस्ते सुवर्णस्तु षोडश॥१३४॥पलं सुवर्णश्चत्वारः पलानि धरणं दश। द्वे कृष्णले समधृते व्ज्ञेयो रौप्यमाषकः॥१३५॥ते षोडश स्याद्धरणं पुराणश्चैव राजतः। कार्षापणस्तु विज्ञेव्यस्ताम्रिकः कार्षिकः पणः॥१३६॥धरणानि दश ज्ञेयः शतमानस्तु राजतः। चतुः सौवर्णिको निष्को विज्ञेयस्तु प्रमाणतः॥१३७॥=छिद्र से सूर्य की किरण मार्ग में जो सूक्ष्म धूलि कण दीखते हैं वह त्रसरेणु है जो पहला मान है।८ त्रसरेणु = १ लिक्षा, ३ लिक्षा = १ राजसर्षप, ३ राजसर्षप = गौरसर्षप।६ गौरसर्षप = मध्य यव, ३ मध्ययव = १ कृष्णल, ५ कृष्णल (रत्ती) = १ माष (माशा), १६ मासा (१६ आना, शिवसूत्र का आणव मल) = १ सुवर्ण।४ सुवर्ण = १ पल (भार के माप), १० पल = १ धरण२ कृष्णल के भार का रौप्यमाषक= इतने वजन का की चान्दी का रुपया। रौप्य का अर्थ चान्दी भी है। इसका अन्य अर्थ करते हैं कि सिक्के पर रूप (अंक, या आकृति) बनाते हैं। १६ रौप्य माषक = रौप्यधरण या राजत या चान्दी का पुराण।ताम्बे के कर्ष (पैसे) को कर्ष तथा पण कहते हैं।१० धरण = शतमान राजत (१०० रुपया)। भार से ४ सुवर्ण = १ निष्क।रूप्य (रुपया) के अर्थ-आहतं रूपं अस्यास्तीति। रूप + रूपाद्आहतप्रशंसयोर्यप् (५/२/१२०) इति यप्। आहतस्वर्णरजतम् (अमरकोष २/९/९१)। हेम रुप्यश्च आहतं अश्ववराहपुरुषादि रूप्यमुच्यते रूपाय आहतं रूप्यं (इति भरतः)।महाभारत (५/३९७९)-सुवर्णस्य मलं रूप्यं रूप्यस्यापि मलं त्रपु।ज्ञेयं त्रपु मलं सीसं सीसस्यापि मलं मलम्॥खजाने का मालिक रूप्याध्यक्ष या नैष्किक (अमरकोष २/८/७)।अमरकोष (२/९/८४-९१) में भी मुद्रा या भार मानों के पर्याय शब्द दिये हैं।रुपया ढालने या काटने के लिये सांचा को तक्षशिला कहते थे जिससे टकसाल है।

डिस्कलेमर -समस्त कंटेंट अलग अलग जानकरों से प्राप्त है रोशन सबेरा केवल पब्लिकेशन कर रहा है।

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