कांग्रेस की दुर्दशा अब चरम पर,ये क्या हुआ, कैसे हुआ …

कांग्रेस खुद कांग्रेस की दुश्मन और नुकसान के लिए किसी बाहरी ताकत की जरूरत नहीं
कांग्रेस के नगर अध्यक्ष और 18 साल बाद कांग्रेस को महापौर चुनाव जिताने वाले जगत बहादुर सिंह ने भाजपा का दामन थाम लिया है। अन्नू पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ, विवेक तन्खा और तरुण भनोट के खास माने जाते रहे हैं। निगम में भाजपा बहुमत में हैं और अब महापौर को भी अपने पाले में करके उसने कांग्रेस को तगड़ा झटका दिया है। पार्षदों के स्तर पर यह भगदड़ क्या रंग दिखाती है, देखना बाकी है। पिछले विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद भी कांग्रेस की रीति नीति में कोई खास परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा। प्रादेशिक नेतृत्व में हुआ बदलाव दिखावटी साबित हुआ है। ऐसा कुछ भी होता नहीं दिखा जो जमीनी कार्यकर्ताओं के रसातल पर पहुंच गए मनोबल को बढ़ाए। नतीजे सामने हैं। अन्नू के भाजपा में जाने के साथ साथ डिण्डौरी और सिंगरौली के कई महत्वपूर्ण स्थानीय नेताओं के भी भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने की खबरें हैं। और भी जाने कितने कतार में हैं।पिछला लोकसभा चुनाव भाजपा के राकेश सिंह ने एक लाख से अधिक मतों से जीता था। महापौर चुनाव में अन्नू ने न सिर्फ यह अंतर खत्म किया बल्कि 40000 के लगभग अतिरिक्त मत प्राप्त कर भाजपा प्रत्याशी डा. जितेन्द्र जामदार को हराया। जामदार की हार के कई कारण माने गए थे जिनमें भाजपा की अंदरूनी कलह प्रमुख थी। अन्नू लाख कहें कि उनका हृदय परिवर्तन कांग्रेस द्वारा राममंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बहिष्कार के चलते हुआ है, हानि – लाभ की धुरी पर टिकी आज की राजनीति के दौर में इस पर विश्वास करना सहज संभव नहीं है। वे आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से इकलौते संभावित प्रत्याशी थे। इस परिदृश्य में उनका भाजपा गमन स्थानीय राजनीति में क्या परिवर्तन लाता है, देखना दिलचस्प होगा। कयास लगाए जा रहे हैं कि उन्हें जबलपुर लोकसभा सीट से भाजपा टिकट मिल सकता है। ऐसा नहीं भी हुआ तो भी उनके जनाधार से चुनावों में भाजपा को काफी मदद मिलने की उम्मीद है।अन्नू के संदर्भ में कहें तो जनता ने महापौर पद के लिए सिर्फ उन्हें नहीं बल्कि उनकी पार्टी कांग्रेस को भी वोट दिया था। इस आधार पर भाजपा में जाने के बाद भी उनके महापौर बने रहने पर नैतिक सवाल उठता है। महापौर पर दल बदल कानून लागू नहीं होता। मध्यप्रदेश नगरपालिक विधि (तृतीय संशोधन) विधेयक 2021 के “महापौर का वापस बुलाया जाना” व्यवस्था के अनुसार उन्हें निगम क्षेत्र के मतदाताओं के बहुमत द्वारा गुप्त मतदान से वापस बुलाया जा सकता है मगर वापस बुलाने की ऐसी कोई प्रक्रिया तब तक आरंभ नहीं की जा सकती जब तक की निर्वाचित पार्षदों की कम से कम तीन चौथाई संख्या प्रस्ताव पर हस्ताक्षर न कर दे और उसे संभागीय आयुक्त को प्रस्तुत न कर दिया जाए । भाजपा पार्षदों के समर्थन के बिना यह संभव नहीं है। इसलिए न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। अन्नू मजे से महापौर बने रहेंगे। वैसे भी आज की राजनीति में नैतिकता की बहस बेमानी है।
वर्तमान लोकसभा में कांग्रेस की 52 में से 32 सीटें तमिलनाडु और केरल से आती हैं जहां वह क्रमशः द्रमुक और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों पर निर्भर है और भाजपा की उपस्थिति लगभग नगण्य है। शेष 20 सीटें ही ऐसी हैं जो देश के अन्य हिस्सों से आती हैं। इंदिरा गांधी के अवसान के बाद शुरू हुई कांग्रेस की दुर्दशा अब चरम पर है। हिंदी भाषी प्रदेशों में उसका वोट बैंक तेजी से भाजपा के पास खिसक रहा है। अन्य कितने ही प्रदेशों में उसका जनाधार कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं के पास चला गया है। बंगाल में ममता, आंध्र में जगन रेड्डी, महाराष्ट्र में शरद पवार , उड़ीसा में नवीन पटनायक जैसे क्षत्रप इसका उदाहरण हैं। समूचा शीर्ष नेतृत्व बिना किसी जनाधार वाले मुठ्ठी भर चाटुकार नेताओं की जकड़ में है और जमीनी वास्तविकताओं पर गौर करने को तैयार नहीं है। मध्यप्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश की करारी हार से हतोत्साहित कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के बजाय राहुल गांधी पूर्व और पूर्वोत्तर की पदयात्रा में व्यस्त हैं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी बंगाल की बहरामपुर सीट की जिद पकड़े हुए हैं भले ही ममता के साथ गठबंधन दांव पर लग जाए। पिछले बंगाल विधानसभा चुनाव में शून्य पर सिमट जाने वाली कांग्रेस माकपा की शह पर ममता से टकराना चाह रही है। उधर ममता जानती हैं कि कांग्रेस के पतन से निराश उसका पारंपरिक वोट बैंक भाजपा के पास तो जाने से रहा, उनके पास ही आएगा। साबित हो रहा है कि कांग्रेस खुद कांग्रेस की दुश्मन है और उसे नुकसान के लिए किसी बाहरी ताकत की जरूरत नहीं है।
भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत अभियान अब धीरे धीरे विपक्ष मुक्त भारत अभियान में बदलता दिख रहा है। हमेशा चुनावी मोड में रहने वाली भाजपा कांग्रेस के जनाधार वाले नेताओं पर नजर गड़ाए हुए है। प्रधानमंत्री मोदी ऐलान कर चुके हैं कि अगले चुनाव में भाजपा खुद 370 और राजग के साथ मिलकर 400 से ऊपर सीटें जीतेगी। हिंदी भाषी प्रदेशों में अपनी विजय निश्चित मानकर वह दक्षिण में जड़ें जमाने की भरपूर कोशिश कर रही है और अगर कांग्रेस से निराश मतदाताओं को साधने में सफल रही तो विपक्ष मुक्त भारत का सपना साकार हो सकता है। ऐसे में प्रजातंत्र के सही मायने किस तरह बदल जाएंगे, सोच कर ही सिहरन होती है।