हिंदी वर्णमाला में अब हिंदी के वर्ण अब 52 नहीं, 53 होंगे,हिंदी की गिनती अब पूरी हुई!

कभी-कभी सबसे गहरे बदलाव सबसे चुपचाप होते हैं–अभिमनोज
न उद्घोष, न शीर्षक- सिर्फ एक छोटा-सा संशोधन, जो समय के साथ भाषा के स्वभाव में उतर जाता है। ऐसा ही एक बदलाव हुआ हिंदी वर्णमाला में। अगस्त 2024 में केन्द्रीय हिंदी समिति ने ‘ळ’ (ऴ ध्वनि) को हिंदी वर्णमाला का हिस्सा घोषित किया, जिससे हिंदी के वर्ण अब 52 नहीं, 53 हो गए।पर यह कोई बड़ी खबर नहीं बनी। टीवी पर कोई ब्रेकिंग नहीं चला, अख़बारों में कोई मोटी हेडलाइन नहीं छपी। यह निर्णय सुर्खियों से दूर, लगभग चुपचाप, सरकारी दस्तावेज़ों और पाठ्यक्रमों में दर्ज हुआ। इसलिए बहुत से हिंदी प्रेमियों, शिक्षकों और लेखकों को भी इस बदलाव की जानकारी अब जाकर मिली।यह देरी इस बदलाव की गरिमा को कम नहीं करती, बल्कि यह दिखाती है कि हिंदी अपने भीतर कैसे धीरे-धीरे समावेश को जगह देती है- बिना शोर के, पर पूरी प्रतिबद्धता के साथ।‘ळ’ कोई नया शब्द नहीं था। वह वर्षों से हमारे गले, मुंह और मुहावरों में था। हरियाणवी के किसी खेत में, मराठी की कविता में, बुंदेली की लय में या गढ़वाली के किसी लोकगीत में – यह ध्वनि जिंदा थी। लेकिन हिंदी की वर्णमाला में वह सिर्फ एक “संयुक्त ध्वनि” बनकर रह गई थी – उपस्थिति में थी, पर पहचान में नहीं।अब उसे वह जगह मिल गई है – औपचारिक मान्यता, जो किसी भी जीवंत ध्वनि का हक होता है। यह मात्र ध्वनि का समावेश नहीं है, यह भाषाई न्याय है।हिंदी की यह यात्रा आज यहाँ तक पहुँची है, लेकिन इसकी शुरुआत बहुत पहले हो चुकी थी — 1844 में इंदौर के एक मदरसे में, जहाँ पंडित भवानी प्रसाद मिश्र ने पहली बार औपचारिक रूप से हिंदी की कक्षा चलाई थी। उस दौर में जहाँ फारसी और मराठी पढ़ाई जाती थी, वहीं उन्होंने हिंदी वर्णों को पहली बार शिक्षण की व्यवस्था में स्थान दिलाया। यह क्षण चुपचाप इतिहास में दर्ज हुआ – ठीक वैसे ही जैसे ‘ळ’ को अब जाकर वह सम्मान मिला है जिसका वह वर्षों से अधिकारी था। यह बदलाव न कोई तकनीकी भूल थी, न ही कोई भ्रमजनक प्रयोग। यह कोई गड़बड़ी नहीं, बल्कि हिंदी को उसकी लोकध्वनियों के करीब लाने का एक सोच-समझकर किया गया भाषिक विस्तार है। इस निर्णय में न कोई जल्दबाज़ी है, न प्रचार- बल्कि एक गहरी समझ है कि एक जीवित भाषा वही होती है, जो अपने सीमांत की आवाज़ों को भी केन्द्र में ला सके।इसीलिए यह निर्णय शिक्षकों, पाठ्यक्रम निर्माताओं और शैक्षिक संस्थानों के बीच धीरे-धीरे प्रसारित हो रहा है। यह बदलाव किसी घोषणापत्र से नहीं, बल्कि चुपचाप पाठ्यपुस्तकों में उतरने वाला वह वाक्य है, जो बच्चों की ज़ुबान में जाकर भाषा बनता है।हिंदी की यह बढ़ी हुई गिनती -53 वर्णों की-हमें यह याद दिलाती है कि कोई भी भाषा तब पूरी होती है, जब वह अपने सभी बच्चों को गले लगा ले। ‘ळ’ को जो स्थान अब मिला है, वह देर से सही, लेकिन बहुत सही है।यह कोई अचानक फैलाया गया समाचार नहीं था -यह एक भाषाई स्वीकार का धीमा लेकिन गरिमापूर्ण आगमन था। और शायद यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है।